श्राद्ध के समय कोई शुभ कार्य क्यों नहीं किया जाता? | आध्यात्मिक शक्ति का रहस्य
श्राद्ध के दिनों में शुभ कार्य जैसे विवाह, मुंडन, गृह प्रवेश या व्यापार आरंभ करना अशुभ क्यों माना जाता है? क्या इसके पीछे केवल परंपरा है या गहरी आध्यात्मिक ऊर्जा का कोई रहस्य छिपा है? इस लेख में हम वेदों, पुराणों और आध्यात्मिक शक्ति (Adhyatmik Shakti) के दृष्टिकोण से समझेंगे कि पितृ पक्ष के दौरान ब्रह्मांडीय ऊर्जा कैसे बदलती है और क्यों यह समय स्मरण, तर्पण और आत्म-शुद्धि का काल कहा गया है।
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11/12/20251 min read
श्राद्ध के समय कोई शुभ कार्य क्यों नहीं किया जाता | आध्यात्मिक शक्ति का रहस्य
‘श्राद्ध’ शब्द ‘श्रद्धा’ से उत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है विश्वास और आस्था से किया गया कर्म। यह काल पितरों के प्रति समर्पण और कृतज्ञता का होता है। भाद्रपद पूर्णिमा से अमावस्या तक चलने वाले पितृ पक्ष में हर व्यक्ति अपने पूर्वजों को तर्पण, पिंडदान और दान के माध्यम से स्मरण करता है।
वेदों में कहा गया है कि जो व्यक्ति श्रद्धा से पितरों का कार्य करता है, वह दोनों लोकों में तृप्ति प्राप्त करता है। यह समय आत्मा, परिवार और वंश की चेतना को एक सूत्र में बाँधता है। पितृ पक्ष हमें अपने मूल की याद दिलाता है और यह सिखाता है कि जीवन में कृतज्ञता का भाव ही सबसे बड़ी पूजा है।
आध्यात्मिक दृष्टि से श्राद्ध काल की ऊर्जा
श्राद्ध काल वह समय होता है जब सूर्य और चंद्रमा की स्थिति पृथ्वी पर ऊर्जा के संतुलन को प्रभावित करती है। इस अवधि में तामसिक और पितृ प्रधान ऊर्जा का प्रभाव अधिक होता है। यह ऊर्जा स्थिर, शीतल और आत्मिक होती है। इसलिए इसे ध्यान, जप, और पितृ तर्पण के लिए उपयुक्त माना गया है।
शुभ कार्य जैसे विवाह, गृह प्रवेश या व्यापार की शुरुआत के लिए सात्त्विक और रचनात्मक ऊर्जा की आवश्यकता होती है। जब वातावरण में तामसिक तरंगें प्रबल हों, तब ऐसे कार्यों के परिणाम स्थायी नहीं होते। इसलिए ऋषि-मुनियों ने इस काल को आत्मिक साधना और पितृ स्मरण का समय माना है।
पितृ शक्ति का आह्वान
गरुड़ पुराण के अनुसार — “श्राद्धकाले पितरः पृथ्वीमुपसर्पन्ति।”
अर्थात् श्राद्ध काल में पितर पृथ्वी पर अपने वंशजों के समीप आते हैं।
जब पितृ ऊर्जा सक्रिय होती है, तो यह समय श्रद्धा, तर्पण और विनम्रता का होता है। उत्सव, संगीत, विवाह या कोई भी भौतिक आनंद इस संतुलन को तोड़ देता है। इसलिए यह काल शांति और संयम का माना गया है।
Adhyatmik Shakti के अनुसार जब आत्मा की तरंगें सक्रिय होती हैं, तब भौतिक उल्लास की तरंगें उनकी स्थिरता को विचलित करती हैं। पितृ काल आत्मिक साधना का समय है, न कि उत्सव का।
शास्त्रीय प्रमाण: क्यों निषेध है शुभ कार्य
गरुड़ पुराण में कहा गया है — “पितृ पक्षे यदा श्रद्धं तदा न क्रियते शुभम्।”
अर्थात पितृ पक्ष में केवल श्रद्धा और तर्पण योग्य कार्य किए जाएँ।
मनुस्मृति कहती है — “श्राद्धकाले न कर्तव्यम् विवाहं च गृहप्रवेशम्।”
अर्थात श्राद्ध काल में विवाह, गृह प्रवेश या कोई भी शुभ कार्य नहीं करना चाहिए।
स्कंद पुराण में भी उल्लेख है — “श्राद्ध समये न कुर्यात् मंगलं यः नरः।”
जो व्यक्ति श्राद्ध काल में शुभ कार्य करता है, वह न देवताओं का आशीर्वाद पाता है और न ही पितरों का।
इन शास्त्रीय प्रमाणों से स्पष्ट होता है कि इस अवधि में शुभ कार्यों से बचना केवल अंधविश्वास नहीं, बल्कि ऊर्जा और भावनात्मक संतुलन का नियम है।
श्राद्ध काल का आध्यात्मिक विज्ञान
हर काल का अपना एक कंपन स्तर होता है। जैसे वसंत ऋतु सृजन की ऊर्जा लाती है, वैसे ही पितृ पक्ष आत्मा के उत्थान की ऊर्जा से भरा होता है। इस समय ब्रह्मांड की कंपन शक्ति आत्मा और पितृ लोक के बीच सेतु का कार्य करती है।
जब व्यक्ति इस काल में जप, ध्यान या तर्पण करता है, तो वह अपने पितरों से ऊर्जात्मक रूप से जुड़ता है। इससे उसकी आत्मा हल्की, शांत और संतुलित होती है। लेकिन यदि इस समय कोई व्यक्ति भौतिक कार्य करता है, तो यह ऊर्जात्मक असंतुलन लाता है, जिससे कार्य का फल बाधित हो सकता है।
Adhyatmik Shakti के दृष्टिकोण से श्राद्ध काल ब्रह्मांड की उस अवस्था का प्रतीक है जब आत्मा और चेतना के द्वार खुले होते हैं। इस समय बाहरी उत्सव के बजाय अंदर की साधना फलदायी होती है।
श्राद्ध काल का मनोवैज्ञानिक महत्व
श्राद्ध काल केवल धार्मिक नहीं, बल्कि मानसिक शांति का भी काल है। इस समय व्यक्ति अपने पितरों को याद करता है और यह स्मरण उसे विनम्र और कृतज्ञ बनाता है। यह समय आत्म-संवाद का होता है, जब व्यक्ति अपने जीवन और कर्मों पर विचार करता है।
आधुनिक दृष्टि से देखा जाए तो यह मानसिक स्थिरता और भावनात्मक संतुलन का अभ्यास है। पितरों का स्मरण हमें यह एहसास कराता है कि जीवन क्षणभंगुर है, और हमें अपने कर्मों से ही अमरता प्राप्त करनी होती है।
क्या होता है जब कोई शुभ कार्य इस समय कर दिया जाए
यदि किसी कारणवश कोई व्यक्ति श्राद्ध काल में विवाह, गृह प्रवेश या नया कार्य कर देता है, तो शास्त्रों में कहा गया है कि यह ऊर्जात्मक विरोधाभास उत्पन्न करता है। इस स्थिति में तर्पण, दान, और ब्राह्मण भोज करना आवश्यक बताया गया है।
गरुड़ पुराण के अनुसार — “प्रायश्चित्तं तर्पणं दानं श्राद्धकाले कृतं शुभम्।”
अर्थात श्राद्ध काल में किए गए शुभ कर्म का प्रायश्चित्त तर्पण और दान से होता है।
श्राद्ध काल में क्या करना चाहिए
श्राद्ध काल में कुछ कर्म ऐसे हैं जिन्हें करने से पितृ प्रसन्न होते हैं और आत्मिक शांति प्राप्त होती है।
पितृ तर्पण करें — जल, तिल और कुशा से अर्पण करें।
दान करें — भोजन, वस्त्र और अन्न का दान करें।
ब्राह्मण भोज कराएँ — यह पितृ तृप्ति के समान फल देता है।
ध्यान और जप करें — “ॐ पितृदेवाय नमः” या “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” का जप करें।
मांस और मदिरा का सेवन न करें — यह सात्त्विक ऊर्जा को बनाए रखता है।
शांति और संयम बनाए रखें — क्रोध और विवाद से दूर रहें।
शुभ और श्राद्ध की ऊर्जा में अंतर
शुभ कार्य सात्त्विक और रचनात्मक ऊर्जा की मांग करते हैं। यह ऊर्जा उत्साह और नव सृजन से जुड़ी होती है। वहीं श्राद्ध काल की ऊर्जा तामसिक और आत्मिक होती है। यह आत्म-शांति, स्मरण और मुक्ति के लिए अनुकूल होती है।
जब दोनों प्रकार की ऊर्जा एक साथ आती हैं, तो असंतुलन उत्पन्न होता है। इसलिए हमारे ऋषियों ने श्राद्ध काल को पवित्र, गंभीर और संयमित समय माना है, जिसमें केवल आत्मा और पितरों के प्रति श्रद्धा दिखाई जाती है।
श्राद्ध समाप्ति के बाद शुभ आरंभ क्यों होता है
श्राद्ध अमावस्या के बाद सूर्य और चंद्र की स्थिति बदलती है और सात्त्विक ऊर्जा पुनः सक्रिय होती है। इसलिए इस समय से विवाह, गृह प्रवेश, व्यापार आरंभ या कोई नया कार्य शुरू किया जा सकता है। इसे नवसृजन और पुनरुत्थान का समय माना गया है।
यह परिवर्तन दर्शाता है कि जीवन में हर समाप्ति के बाद एक नई शुरुआत होती है। पितृ पक्ष आत्मा की शांति का प्रतीक है, और उसके बाद आने वाला काल सृजन और विकास का।
आध्यात्मिक शक्ति का निष्कर्ष
श्राद्ध के समय शुभ कार्य न करने का नियम केवल परंपरा नहीं बल्कि ऊर्जा और चेतना के विज्ञान पर आधारित है। इस काल में ब्रह्मांड की ऊर्जा आत्मा और पितृ लोक की दिशा में प्रवाहित होती है। जबकि शुभ कार्यों के लिए जिस दैविक और उत्सवपूर्ण ऊर्जा की आवश्यकता होती है, वह इस अवधि में सक्रिय नहीं रहती।
इसलिए श्राद्ध काल उत्सव का नहीं, आत्म-साधना का समय है। यह काल हमें अपने मूल से जोड़ता है, विनम्र बनाता है, और जीवन के गहरे अर्थों से परिचित कराता है।
श्रद्धा के बिना श्राद्ध अधूरा है, और संयम के बिना शुभ कर्म निष्फल। पितरों का स्मरण हमें सिखाता है कि पहले अपने पूर्वजों को धन्यवाद देना और फिर जीवन में नए कदम उठाना ही सच्ची सफलता का मार्ग है।
जो व्यक्ति इस अवधि में शांति, श्रद्धा और संयम से पितृ सेवा करता है, उसे न केवल पितृ आशीर्वाद बल्कि आत्मिक शक्ति का अनुभव भी प्राप्त होता है।


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